Thursday, June 7, 2012

Isn't Poetry a Research!!!!!!!!!




एक प्रश्न के जवाब में 

कितनी जल्दी बूढ़े हो जाते हैं 
हमारे चहेते काका- दादा लोग   

रोज़ नई अडंगी डालने वाले  
कमीज़ में सुराख़ करने वाले 
नई रबर पेंसिल चोरी करने वाले  
टिफ़िन बॉक्स से लज़ीज़ खाना गड़प करने वाले 
दोस्त तो सदा कड़क जवान बने रहते हैं  


मंगलू काका 
जो रोज़ इक नई कहानी को ज़मीन  पर उतारा करते  
कांसी की थाली में परोसी बाजरे की खिचड़ी को
इतनी देर तक फेंटते
कि  खिचड़ी की सफेदी खुद शर्माने लगती 
कभी- कभी लगता कि  काकी के चूल्हे ने अधपकी खिचड़ी पकाई है 
बाकी का कमाल तो काका की ऊंगलियों ने किया है  

काका देर रात गए घड़े बनाते और 
मैं उकडू बैठ उनकी  उँगलियों का जादू बिना पलक झपकाए देखा करती 
चाक पर मिटटी के  लौंदे से सुराही बनाते काका 
जादूगर के सगे भाई  दिखाई देते  


अपने उस चुलबुले दौर में 
घर वाले सिपाही के नाती लगते   
और काका फरिश्तों  के   दूत  
घर वालों की टोली में से एक बाशिंदा
मुझे ढूँढने काका के दलान में आ धमकता   

काका गिरते भागते 
अँधेरे को  टटोलते मुझे 
कहीं गुल कर दिया करते 

काका की चेचक के निशान से लदे दागिले काले चेहरे पर
आँखों की बजाये दो काले गड्ढे थे  
जिन पर मैं अपनी नन्ही उंगलियां 
कुछ इस अनुमान से फेरती कि 

किसी तरह दिख जाए काका को मेरा नन्हा चेहरा 
दिख जाये मेरे घुंघराले बाल 
एक आँख में डला काज़ल 
मेरी धुल सनी चड्डी -बनियान 


एक वक्त के बाद 
किसी शाप की छाया के नीचे आ 
काका-भतीजी का यह रिश्ता 
दो देशो जैसा कंटीला हो गया 

मेरे दादा की काका से बिगड़ गई 
इस बैर-राग का पहला और आखीरी  निशाना 
मैं ही बनी  

‘टांग तोड़ दूंगा कुम्हार मोहल्ले की तरफ दीखा  भी कभी तो’
छोटे चचा ने आँख तरेरी’
मेरे आंसुओं की कहानी 
किसी किताब में बंद हो गयी  

मेरा कद ऊँटनी से टक्कर लेने लगा 
मेरी युवा आँखों के सामने 
यह दुनिया गर्म पानी में रखे अंडे की तरह मेरे सामने उबलने लगी 


इस बार गाँव आने पर   
आँखों के गढ्ढों में गंदगी लिए मैले-कुचले काका को देख कर 
मैं अपने में सिमट 
दो कदम पीछे हट गई 
दोष मेरा नहीं मेरी साफ़ सुधरी विरासत का था 
जिसे हर मैली चीज़ से उबकाई आती थी 


मेरी बचपन की चपलता को काला चोर ले गया 
गांव के चौबारे में एक लड़की और
वह भी शहर से आयी हुई

दुनिया कुछ है 
उसकी किसी को परवाह नहीं है 

मंगलू काका तो दुनिया को चालू हालत में छोड़  
अपने धाम चले गए    
मै वापिस अपनी उस दुनिया में हाथ-पाँव मारने लगी   
जहाँ पर ना कोई मंगलू कुम्हार से  सिद्धहस्त हाथ हैं ना  
कोई स्नेहिल मंगलू काका. 
a poem by Vipin Choudhry
and something about poet Emily Dickinson    HERE
Have a Read!!!

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